ठी इक हूक जो इन मौसमों की आवाजाही से
बना जाये है इक तस्वीर यादों की सियाही से


कि होती जीत सच की बात ये अब तो पुरानी है
दिखे है रोज सर इसका कटा झूठी गवाही से

नहीं दरकार है मुझको किनारों की मिहरबानी
बुझाता प्यास हूँ दरिया की मैं अपने सुराही से


किया है जुगनुओं ने काम कुछ आसान यूँ मेरा
बुनूँ मैं चाँद का पल्ला सितारों की उगाही से

जिबह होता है इक हिस्सा उमर का रोज ही मेरा
सुबह जब मुस्कुराता है ये सूरज बेगुनाही से

अजब आलम हुआ जब मौत आई देखने मुझको
दिखा तब देखना उनका झरोखे राजशाही से


घड़ी तुमको सुलाती है घड़ी के साथ जगते हो
जरा सी नींद क्या है चीज पूछो इक सिपाही से

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